भारत में वन संरक्षण: पर्यावरण और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा
भारत, अपनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध है, और इसके वन इस धरोहर का एक अभिन्न हिस्सा हैं। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 21.71% (7,13,789 वर्ग किमी) वनों से आच्छादित है, जैसा कि भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) की 2021 की रिपोर्ट में बताया गया है। वन न केवल जैव विविधता का खजाना हैं, बल्कि जलवायु नियंत्रण, मृदा संरक्षण, और लाखों लोगों की आजीविका का आधार भी हैं। विशेष रूप से, आदिवासी समुदायों के लिए वन सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान का केंद्र हैं। फिर भी, वन संरक्षण भारत में एक जटिल चुनौती है, जिसमें पर्यावरणीय, सामाजिक, और आर्थिक कारक शामिल हैं।
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भारत के वन विश्व की 8% जैव विविधता को आश्रय देते हैं, जिनमें 1,300 से अधिक पक्षी प्रजातियां, 400 से अधिक स्तनधारी, और असंख्य पौधे और कीट शामिल हैं। ये वन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषण के माध्यम से जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करते हैं। FSI की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के वन प्रतिवर्ष लगभग 2.5 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करते हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, वन मृदा कटाव को रोकते हैं, जल चक्र को बनाए रखते हैं, और नदियों के लिए जल स्रोत प्रदान करते हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और पूर्वोत्तर राज्यों जैसे क्षेत्रों में वन आदिवासी समुदायों की आजीविका का आधार हैं, जो जड़ी-बूटियों, इमारती लकड़ी, और अन्य वन उत्पादों पर निर्भर हैं।
19वीं सदी में भारत का वन क्षेत्र 40% था, जो अब घटकर 21.71% रह गया है। वनों के ह्रास के प्रमुख कारणों में शामिल हैं। खनन, बांध निर्माण, और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं ने बड़े पैमाने पर वनों को नष्ट किया है। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और झारखंड में कोयला खनन ने हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र को प्रभावित किया है। बढ़ती जनसंख्या और कृषि भूमि की मांग ने वनों को खेतों और बस्तियों में बदल दिया है। FSI के अनुसार, 2011-2021 के बीच 1,400 वर्ग किमी वन क्षेत्र गैर-वानिकी उपयोग में परिवर्तित हुआ। लकड़ी और वन्यजीव तस्करी ने जैव विविधता को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। 2022 में, पर्यावरण मंत्रालय ने 12,000 से अधिक अवैध कटाई के मामले दर्ज किए। सूखा, जंगल की आग, और अनियमित वर्षा ने वनों को कमजोर किया है। 2023 में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में जंगल की आग ने 1,000 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र को नष्ट किया।
मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में गोंड, बैगा, और भील जैसे आदिवासी समुदाय वनों के संरक्षक रहे हैं। उनकी परंपराएँ, जैसे वृक्ष पूजा और नदी पूजा, पर्यावरण संरक्षण की भावना को दर्शाती हैं। लेकिन वन अधिनियमों और औद्योगीकरण ने उनकी आजीविका को प्रभावित किया है। वन अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) ने आदिवासियों को वन भूमि पर अधिकार देने का प्रयास किया, लेकिन 2022 तक केवल 40% दावों को ही स्वीकृति मिली। यह असमानता आदिवासियों को वनों से दूर कर रही है, जिससे उनकी सांस्कृतिक परंपराएँ भी खतरे में हैं।
भारत सरकार ने वन संरक्षण के लिए कई कदम उठाए हैं। वन संरक्षण अधिनियम 1980 गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग को नियंत्रित करता है। राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम और ग्रीन इंडिया मिशन ने 2014-2024 के बीच 2.5 मिलियन हेक्टेयर में वृक्षारोपण किया। संयुक्त वन प्रबंधन (JFM) के तहत स्थानीय समुदायों को वन संरक्षण में शामिल किया गया है, जिसके तहत 22 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रबंधित हो रहा है। भारत ने पेरिस समझौते के तहत 2030 तक 33% वन क्षेत्र का लक्ष्य रखा है, लेकिन प्रगति धीमी है।
पहला, अवैध कटाई और तस्करी पर सख्त निगरानी और तकनीकी उपाय, जैसे ड्रोन और सैटेलाइट इमेजिंग, लागू किए जाएं। दूसरा, आदिवासी समुदायों को वन प्रबंधन में अधिक भागीदारी दी जाए, क्योंकि उनकी पारंपरिक ज्ञान प्रणाली संरक्षण में प्रभावी है। तीसरा, शहरीकरण और औद्योगीकरण को टिकाऊ बनाना होगा, ताकि वन क्षेत्रों पर दबाव कम हो। चौथा, स्कूलों और समुदायों में पर्यावरण जागरूकता अभियान चलाए जाएं।
भारत के वन केवल पर्यावरणीय संसाधन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर भी हैं। मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदायों की लुप्त होती परंपराएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वनों का क्षरण सांस्कृतिक हानि को भी जन्म देता है। यदि हम भावी पीढ़ियों के लिए स्वच्छ हवा, पानी और जैव विविधता को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो वन संरक्षण को राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाना होगा। यह केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। वनों की रक्षा करके ही हम भारत की प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत को बचा सकते हैं।
डॉ. नितिन भगौरिया (मीडिया शिक्षक / लेखक)