79वां स्वतंत्रता : झारखंड के आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय की पुकार
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15 अगस्त 2025 को भारत ने अपने 79वें स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाया। आज़ादी के बाद जन्मा यह देश कई उतार-चढ़ावों का साक्षी रहा है, फिर भी आज एक युवा, सामर्थ्यवान और आकांक्षी भारत विश्व मंच पर अपनी पहचान बना रहा है। एक ओर जहां देश 'विकसित भारत' के स्वर्णिम स्वप्न को साकार करने की दिशा में अग्रसर है, वहीं दूसरी ओर झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में निवास करने वाले लोग सामाजिक न्याय का सपना बुनते हैं। दुखद यह है कि इनके सपनों के साकार होने की संभावनाएं लगभग नगण्य हैं।
झारखंड ने देश की आर्थिक समृद्धि में अभूतपूर्व योगदान दिया है। खनिज पदार्थों, पारंपरिक जैव ईंधन, रेडियोधर्मी पदार्थों और दुर्लभ तत्वों के मामले में यह क्षेत्र हमेशा से देश के विकास का आधार रहा है। विशेष रूप से, भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने में झारखंड का योगदान अतुलनीय है। लेकिन विडंबना यह है कि जिस क्षेत्र ने देश को समृद्ध बनाने में अपनी मिट्टी का हर कण न्योछावर किया, वहां के आदिवासी आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। रेडियोधर्मी कचरे और इसके दुष्प्रभावों ने उनके जीवन को अभिशाप बना दिया है। रेडियोधर्मी पदार्थों से उत्पन्न होने वाला कचरा, विशेष रूप से जादूगोड़ा के पहाड़ी क्षेत्रों में निस्तारित किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र का पर्यावरण और मानव जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। घातक रेडियोधर्मी किरणों के कारण आदिवासियों को रेडिएशन सिकनेस और रेडिएशन सिंड्रोम जैसी जानलेवा बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। स्थिति इतनी गंभीर है कि हवा में सांस लेने पर अल्फा कण शरीर में प्रवेश कर श्वसन संबंधी रोग उत्पन्न करते हैं। गर्भवती महिलाओं को गर्भपात का दंश झेलना पड़ रहा है, और जो शिशु जन्म लेते हैं, उनका मानसिक और शारीरिक विकास अवरुद्ध हो रहा है।जादूगोड़ा के तालाब और पेयजल स्रोत पूरी तरह प्रदूषित हो चुके हैं। प्रदूषित जल के कारण लोग गंभीर बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। इन जटिल परिस्थितियों में जीवन जीना किसी अभिशाप से कम नहीं है। फिर भी, इस क्षेत्र में न तो सरकारी मदद पहुंच रही है और न ही स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ इन आदिवासियों तक पहुंच पा रहा है।
यह प्रश्न उठता है कि क्या देश को समृद्ध बनाने वाले इस क्षेत्र के प्रति सामाजिक न्याय की मांग को और जोर-शोर से नहीं उठाना चाहिए? क्या मौन स्वीकृति ही एकमात्र रास्ता है?भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। फिर भी, झारखंड के आदिवासी इस मौलिक अधिकार से वंचित क्यों हैं? सतत विकास की अवधारणा, जो विश्व स्तर पर चर्चा का विषय है, इस क्षेत्र में आकर क्यों शून्य हो जाती है? क्या यह विसंगति सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं है?
सरकार को इस क्षेत्र में हर संभव मदद पहुंचाने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए। सबसे पहले, एक व्यापक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की आवश्यकता है ताकि इन गंभीर बीमारियों का उचित निदान और उपचार हो सके। साथ ही, रेडियोधर्मी कचरे के सुरक्षित निस्तारण के लिए वैज्ञानिक और पर्यावरण-अनुकूल उपाय अपनाए जाने चाहिए। स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था, स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना और नियमित चिकित्सा शिविरों का आयोजन इस क्षेत्र के लोगों के लिए जीवन रक्षक साबित हो सकता है। आदिवासी समुदायों के उत्थान के बिना सार्थक स्वतंत्रता की कल्पना अधूरी है। देश की प्रगति का आधार इन समुदायों की समृद्धि और कल्याण में निहित है।
यदि भारत को सही मायनों में 'विकसित भारत' बनाना है, तो झारखंड जैसे क्षेत्रों के आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा में लाना होगा। उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका की गारंटी सुनिश्चित करनी होगी।79वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम अपने आदिवासी भाईयों और बहनों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेंगे। सामाजिक न्याय और सतत विकास के सिद्धांतों को अपनाकर ही हम एक समावेशी और समृद्ध भारत का निर्माण कर सकते हैं। यह समय केवल उत्सव मनाने का नहीं, बल्कि उन लोगों की आवाज बनने का है, जो अपने अधिकारों के लिए वर्षों से संघर्षरत हैं। आइए, इस स्वतंत्रता दिवस पर हम यह प्रण करें कि झारखंड के आदिवासियों के सपनों को साकार करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे।
लेखिका: कुमकुम रायकवार, यह लेखिका के अपने निजी विचार हैं।