मध्यप्रदेश में कुपोषण: समृद्धि और विडंबना का चक्रव्यूह
मध्यप्रदेश कृषि उत्पादन में देश का एक प्रमुख राज्य है। रिकॉर्ड के मामले में गेहूं के उत्पादन में द्वितीय स्थान रखता है और सोयाबीन के मामले में प्रथम स्थान पर विराजमान है। यह राज्य अपनी हरित क्रांति और कृषि समृद्धि के लिए जाना जाता है। लेकिन इस समृद्धि के पीछे एक काला अध्याय छिपा है: कुपोषण की भयावह समस्या। सरकारी आंकड़े इस विडंबना को उजागर करते हैं: मई 2025 में प्रदेश के 55 में से 45 जिले 'रेड जोन' में चिह्नित हैं, जहां 20% से अधिक बच्चे अपनी उम्र के अनुसार बेहद कम वजन के हैं।
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प्रदेश में 10 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें से 1.36 लाख गंभीर रूप से कमजोर हैं। अप्रैल 2025 में राष्ट्रीय स्तर पर 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में गंभीर और मध्यम कुपोषण की दर 5.40% थी, जबकि मध्यप्रदेश में यह 7.79% रही—राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक। यह आंकड़े केवल संख्याएं नहीं, बल्कि एक चरमराती व्यवस्था के प्रमाण हैं, जो निर्दोष बच्चों को पोषण तक पहुंचाने में असफल साबित हो रही है। विधानसभा में पेश आंकड़ों के अनुसार, 2020 से जून 2025 तक आदिवासी विकासखंडों में 85,330 बच्चों को पोषण पुनर्वास केंद्रों (NRC) में भर्ती कराया गया।
ये केंद्र कुपोषित बच्चों के इलाज के लिए हैं, लेकिन स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चे इन केंद्रों तक पहुंच रहे हैं। सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक, NRC में प्रति बच्चा 980 रुपये का खर्च होता है, जबकि आंगनवाड़ी केंद्रों में सामान्य बच्चों के लिए प्रतिदिन 8 रुपये और गंभीर कुपोषित बच्चों के लिए 12 रुपये का प्रावधान है। यह राशि इतनी मामूली है कि विशेषज्ञ इसे अपर्याप्त मानते हैं। 2025-2026 के लिए पोषण बजट 4,895 करोड़ रुपये आवंटित किया गया है, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई उल्लेखनीय बदलाव नजर नहीं आ रहा। विपक्ष ने इस बजट को नाकाफी बताते हुए सवाल उठाए हैं कि जब गौशालाओं में गायों के लिए प्रतिदिन 40 रुपये खर्च होते हैं, तो बच्चों के लिए इतनी कम राशि क्यों? कुपोषण की समस्या के मूल में न केवल कमजोर वित्तीय प्रावधान हैं, बल्कि भ्रष्टाचार और प्रशासनिक लापरवाही भी प्रमुख कारक हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि पोषण आहार अक्सर लाभार्थियों तक पहुंचता ही नहीं। आपूर्ति श्रृंखला में ही पोषक तत्व गायब हो जाते हैं, आंगनवाड़ी केंद्र अनियमित रूप से चलते हैं, और जमीनी कार्यकर्ता जवाबदेही से बचते हैं।
आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ पानी, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी इस समस्या को और गहरा देती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, मध्यप्रदेश में बच्चों में स्टंटिंग (बौनापन) 41.61%, वेस्टिंग (कमजोरी) 9.16% और अंडरवेट 26.21% है, जो राष्ट्रीय औसत से ऊपर है। महिलाओं और बच्चों में एनीमिया की दर 70% से अधिक है, जो कुपोषण के चक्र को और मजबूत बनाती है।प्रदेश का उत्तरी क्षेत्र—शिवपुरी, श्योपुर, भिंड और गुना जैसे जिले—कुपोषण से सबसे अधिक प्रभावित हैं। यहां शिशु मृत्यु दर भयावह स्तर पर पहुंच चुकी है। हाल ही में 15 महीने की दिव्यांशी की मौत कुपोषण से जुड़ी बताई गई, हालांकि डॉक्टरों ने इनकार किया।
ये घटनाएं सरकार की उदासीनता को उजागर करती हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सांस्कृतिक और आर्थिक पिछड़ापन, कृषि पर निर्भरता और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कुपोषण बढ़ रहा है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि यदि समय रहते हस्तक्षेप न किया गया, तो यह समस्या पीढ़ीगत हो जाएगी, जिससे मानव पूंजी का नुकसान होगा।सरकार को तत्काल कदम उठाने चाहिए। सबसे पहले, पोषण बजट को बढ़ाना और पारदर्शी वितरण प्रणाली सुनिश्चित करनी होगी। आंगनवाड़ी केंद्रों को मजबूत बनाना, नियमित स्वास्थ्य जांच और जागरूकता अभियान चलाना आवश्यक है। सुपरफूड्स जैसे क्विनोआ या स्थानीय अनाजों को शामिल कर पोषण आहार को प्रभावी बनाया जा सकता है। साथ ही, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए डिजिटल ट्रैकिंग और सख्त निगरानी की जरूरत है। केंद्र सरकार की 'पोषण अभियान' योजना को प्रदेश स्तर पर सख्ती से लागू करना होगा। मध्यप्रदेश की समृद्धि तब तक अधूरी है, जब तक उसके बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ये आंकड़े चेतावनी हैं कि कृषि उत्पादन की सफलता पोषण सुरक्षा में तब्दील होनी चाहिए। सरकार, समाज और विशेषज्ञों को मिलकर इस चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। अन्यथा, यह विडंबना देश के विकास को खोखला कर देगी। सतत प्रयासों से ही मध्यप्रदेश कुपोषण मुक्त बन सकता है, जहां हर बच्चा स्वस्थ और मजबूत हो।
लेखिका: कुमकुम रायकवार,
यह लेखिका के अपने निजी विचार हैं।