आज़ाद ख़्याली पर मज़हब भारी
लेखिका: सोनम लववंशी (स्वतंत्र लेखक व विचारक)
किसी भी समाज की वास्तविक स्थिति उस समाज में रहने वाली स्त्रियों की दशा देखकर ज्ञात की जा सकती है। तभी तो स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि, "जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी और न आगे उन्नति कर सकेगी।" वास्तव में स्त्री, इस धरा पर सृजनात्मकता की प्रतीक है। स्त्री ही है, जो समाज की खेवनहार है। विज्ञान की देन ने स्त्री और स्त्रीत्व की जगह लेने की भले ही कोशिश की हो, लेकिन इसकी भी अपनी एक सीमा है। वंशवृद्धि और वंश को आगे ले जाने में आज भी महिलाओं की महिती भूमिका है। स्त्री ही है, जो कई रूपों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। जन्म के समय वो किसी की बेटी होती है, थोड़ी बड़ी होती है तो बहन, युवावस्था में प्रेमिका या किसी की पत्नी और एक समय बाद माँ बनकर स्वयं बच्चे का पालन-पोषण करती है। सच पूछिए तो एक स्त्री एक ही जीवन में कई जीवन जीती है। फिर इस दौरान आने वाले सुख-दुःख उसके लिए विशेष मायने नहीं रखते हैं। स्त्री की बस एक ही इच्छा होती है कि उसका घर-परिवार सुखी रहे। ऐसे में एक व्यक्ति के नाते, एक सामाजिक प्राणी की बदौलत हमारी भी ये जिम्मेदारी बनती है कि हम उसे अबला नहीं, बल्कि सबला के रूप में स्वीकार करें। स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के सहभागी है और जब हम पुरुष-स्त्री सामान्य रूप में न लिखकर अक्सर 'स्त्री-पुरुष' ही लिखते हैं। जिसमें स्त्री पहले आ रहा है। फिर हम उस स्त्री को अबला क्यों मान लेते हैं? क्यों हम यह मनाने पर विवश हो जाते हैं, कि -"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।"
अब यह स्थिति बदलनी चाहिए और इसकी शुरुआत कहीं न कहीं हो चुकी है। महिलाओं ने मोर्चा खोल दिया है। हिंदू समाज में महिलाओं को अधिकतर अधिकार पुरुषों की भांति वैदिक काल से ही मिले हुए थे, लेकिन समय, काल औऱ परिस्थितियों के आवेग में आकर कई बार हिंदू समाज की महिलाओं के अधिकारों पर भी कुठाराघात हुआ। प्राचीन काल में भारतीय नारी को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता था, धीरे-धीरे परिस्थितियों में बदलाव हुआ और मुग़लकाल में स्त्रियों की दशा बिगड़ती चली गई। फिर अंग्रेजी हुकूमत के आगमन और देश की आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत में शनैः शनैः महिलाओं को पुनः स्वतंत्रता और समानता का हक मिला। जिसकी बदौलत आज स्त्री समाज धरती से लेकर आकाश तक बुलंदी छू रही हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम समाज में आज भी महिलाएं कई तरीक़े से मजहबी बंदिशों से घिरी हुई हैं। जिससे आज़ादी वक्त की मांग है और हालिया दौर के घटनाक्रम देखकर यह सहज अन्दाज़ा लगाया जा रहा है कि इसके लिए महिलाएं अब आगे भी बढ़कर आ रही हैं। मुस्लिम समाज की महिलाएं बुर्क़े का विरोध कर रही हैं। ईरान में लंबे समय से चल रहे विरोध को दुनिया ने बड़े नज़दीकी से अनुभव किया।
ईरान को छोड़ हम अपने देश की ही बात करें तो मुस्लिम देश के भीतर सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है और सबसे बड़ी बात यह है कि आज भी इक्कीसवीं सदी के भारत में इस समुदाय की महिलाएं अपेक्षाकृत अधिक पिछड़ी हुई है। मुस्लिम समुदाय की महिलाओं की स्थिति और वेदना की समझ विकसित करना है, तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट इस विषय में विशेष जानकारी देती है। सच्चर कमेटी के अनुसार मुस्लिम समाज विशेषकर मुस्लिम स्त्रियां काफ़ी पिछड़ी हुईं हैं और जब हम इस पिछड़ेपन का कारण ढूढ़ते हैं, तो इसमें धर्म और पर्दाप्रथा यानी बुर्क़े का अहम योगदान झलकता है। ऐसे में अगर मुस्लिम महिलाओं ने इस्लामिक राष्ट्रों में बदलाव के लिए मुहिम छेड़ दी है और उन्हें सफलता भी मिल रही है तो भारत की मुस्लिम महिलाओं को भी अपने हक की आवाज बुलंद करनी होगी, क्योंकि हमारा संविधान समानता की बात करता है। संविधान के अनुच्छेद-14 में, स्त्री-पुरुष दोनों को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है। अनुच्छेद 15, महिलाओं को समानता का अधिकार प्रदान करता है। फिर वो किसी भी समुदाय विशेष से क्यों न आती हो? वहीं अनुच्छेद- 39, सुरक्षा, समान काम के लिए समान वेतन की वकालत करता है। इसके अलावा भी कई क़ानून हैं। जो महिलाओं को संवैधानिक दृष्टिकोण से सबल बनाने का काम करते हैं।
स्त्रियां किसी भी समाज से जुड़ी हो। अक्सर वो परम्पराओं, सिद्धान्तों और नियमों की बेड़ी में बंधी होती हैं और जब यही परंपरा तोड़कर आधी आबादी पूरी सांस लेने की कोशिश करती है। फिर उसके ऊपर कई प्रकार के लांछन लगाए जाते हैं। कई बार तो होता यह है कि पूरा समाज स्त्रियों के विरोध में खड़ा हो जाता है। वर्तमान समय में देखें तो मुस्लिम परिवारों में स्त्री की स्थिति अत्यंत पिछड़ी और दयनीय है, लेकिन इसी बीच कुछ बदलाव की बयार वैश्विक स्तर पर देखने को मिली है। जो एहसास दिलाती है कि जल्द ही मुस्लिम समुदाय की महिलाएं भी स्वतंत्र और निर्भीक होकर अपना जीवन जी पाएंगी। आज के दौर की बात करें, तो मुस्लिम समाज की स्त्रियां तलाक संबंधी अधिकार, धार्मिक कट्टरता, बहु-पत्नी विवाह, पर्दा प्रथा और कई अन्य मसलों पर अपने को निम्न दर्ज़े का पाती हैं। कई बार स्थिति ऐसी हो जाती हैं कि उन्हें पढ़ने, लिखने, संगीत और टीवी देखने तक की आज़ादी नहीं होती। जो कहीं न कहीं एक विकसित होती सभ्यता पर सवाल खड़े करती है।
इसी बीच ईरान में धर्म की नाजायज बन्दिशें तोडऩे के लिए मुस्लिम महिलाएं सड़कों पर उतरने में गुरेज नहीं की। जिसका नतीजा यह हुआ कि ईरान जैसे इस्लामिक कट्टरपंथी देश को भी झुकना पड़ा। इतना ही नहीं सदियों से हम सुनते आ रहें हैं कि धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करने वाले काजी के पद पर पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है लेकिन अब मुस्लिम महिलाएं भी काजी बन रही हैं। अफरोज बेगम और जहांआरा ने बाकायदा महिला काजी की ट्रेनिंग ली है। नादिरा बब्बर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्लाह, मोहसिना किदवई जैसी कई ऐसी मुस्लिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल कर अपना अलग मुकाम बनाया है। इसी बीच सऊदी अरब सरकार का उदारवादी चेहरा भी दुनिया के सामने आया है। एक समय तक सऊदी अरब कड़े प्रतिबंधों वाला इस्लामिक देश रहा है, लेकिन कुछ वर्षों से स्त्रियों को अधिकार देने के मामले में भी यह देश उदार बना है। यहां महिलाओं से जुड़े कई नियमों में बदलाव किए जा रहे हैं ताकि दुनिया की नजरों में सऊदी अरब 'खुले विचारों वाले मुल्क' के रूप में पहचान बना सके। हाल ही में मशहूर फुटबॉलर क्रिस्टियानो रोनाल्डो को लेकर सऊदी अरब का एक कानून चर्चा में रहा। गौरतलब हो कि कोई भी पुरूष बिना शादी के सऊदी अरब में नहीं रह सकता, लेकिन रोनाल्डो और उनकी गर्लफ्रेंड जॉर्जीना के लिए सऊदी अरब ने छूट प्रदान की। जो यह दर्शाता है कि वक्त के साथ बदलाव अवश्यम्भावी हो जाता है और दुनिया अब इसी दिशा में बढ़ चली है। जहां से स्त्री समाज की प्रगति के नए रास्ते खुलते हैं और यह एक सभ्य समाज के लिए आवश्यक है।
नोट: यह लेखिका के अपने निजी विचार हैं।