अनुसूचित जातियों पर अत्याचार के बढ़ते मामले: सामाजिक न्याय की चुनौती
हाल के वर्षों में हाशिए पर पड़े समुदायों के खिलाफ अत्याचारों का मुद्दा भारत के सामाजिक ताने-बाने को झकझोर रहा है। नई सरकारी रिपोर्ट ने इस समस्या को और गहरा कर दिया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 'क्राइम इन इंडिया 2022' रिपोर्ट और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम (पीओए एक्ट/POXO ACT) की वार्षिक रिपोर्ट के आंकड़ो के अनुसार, अनुसूचित जाति (SC) के सदस्यों के खिलाफ अत्याचारों के मामले 2022 में कुल 52,866 दर्ज किए गए, जिनमें से लगभग 97.7 प्रतिशत (51,656) मामले मात्र 13 राज्यों में केंद्रित थे। इनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश सबसे ऊपर हैं।
यह न केवल चिंताजनक है, बल्कि भारतीय समाज की गहरी जातिगत असमानता को उजागर करता है, जहां दलित समुदाय को समानता का अधिकार अभी भी एक सपना मात्र है। रिपोर्ट के अनुसार, एससी के खिलाफ अपराधों में उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक मामले दर्ज हुए—15,368, जो कुल मामलों का लगभग 27 प्रतिशत है। राजस्थान में 8,752 और मध्य प्रदेश में 7,733 मामले थे। यह वृद्धि 2021 की तुलना में 13.1 प्रतिशत अधिक है, जब कुल मामले 50,900 थे।
अपराधों की प्रकृति भी भयावह है: सरल चोट के मामले 18,428 (कुल का 32 प्रतिशत), आपराधिक धमकी 5,274 (9.2 प्रतिशत), और पीओए एक्ट के तहत 4,703 मामले। महिलाओं के खिलाफ बलात्कार (1,347 मामले) और अपमानजनक हमले भी प्रमुख हैं। ये आंकड़े केवल संख्याएं नहीं, बल्कि उन हजारों परिवारों की पीड़ा का प्रतीक हैं, जो जातिगत हिंसा का शिकार हो रहे हैं। इसी प्रकार, अनुसूचित जनजाति (ST) के खिलाफ अत्याचार भी 13 राज्यों में ही केंद्रित थे। पीओए एक्ट के तहत कुल 9,735 मामलों में मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 2,979 (30.61 प्रतिशत) दर्ज हुए, उसके बाद राजस्थान (2,498) और ओडिशा।
एसटी के खिलाफ कुल अपराध 2021 की तुलना में 14.3 प्रतिशत बढ़े, कुल 51,656 मामले। यह दर्शाता है कि आदिवासी समुदाय भी भूमि, संसाधनों और सांस्कृतिक अधिकारों को लेकर हिंसा का शिकार हो रहा है।रिपोर्ट में जांच और न्याय प्रक्रिया की कमजोरियों पर भी प्रकाश डाला गया है। एससी संबंधी मामलों में 60.38 प्रतिशत में आरोप-पत्र दायर किए गए, जबकि 14.78 प्रतिशत मामलों को झूठे दावों या सबूतों की कमी के कारण अंतिम रिपोर्ट के साथ बंद कर दिया गया।
एसटी मामलों में यह दर और खराब है। दोषसिद्धि दर मात्र 32-36 प्रतिशत रही, जो न्यायिक प्रक्रिया की विफलता को दर्शाती है। विशेष अदालतों की कमी भी एक बड़ी समस्या है। 14 राज्यों के 498 जिलों में से केवल 194 में पीओए मामलों के लिए विशेष अदालतें स्थापित हैं, जिससे सुनवाई में देरी होती है। यह व्यवस्था दलितों को न्याय से वंचित रखती है, क्योंकि सामान्य अदालतों में जातिगत पूर्वाग्रह हावी रहते हैं। इस रिपोर्ट से सवाल उठता है कि भारतीय समाज दलित वर्ग को समानता प्रदान करने में कहां विफल हो रहा है? संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 17 के बावजूद, जातिवाद की जड़ें गहरी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि विवाद, मंदिर प्रवेश और शिक्षा के अधिकार पर हिंसा आम है। शहरीकरण के बावजूद, आरक्षण को लेकर विरोध और सामाजिक बहिष्कार जारी है। विशेषज्ञों का मानना है कि सामाजिक-आर्थिक असमानता, शिक्षा की कमी और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव इस समस्या को बढ़ावा दे रहा है।
2022 की घटनाएं—जैसे उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं पर हमले या राजस्थान में सामूहिक हिंसा—इसकी पुष्टि करती हैं।सरकार को तत्काल कदम उठाने चाहिए। पीओए एक्ट को मजबूत बनाना, विशेष अदालतों की संख्या बढ़ाना, पुलिस प्रशिक्षण और जागरूकता अभियान आवश्यक हैं। गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, जो पीड़ितों को कानूनी सहायता प्रदान कर सकते हैं। सामाजिक न्याय के बिना लोकतंत्र अधूरा है। यदि ये अत्याचार नहीं रुके, तो भारत का 'सबका साथ, सबका विकास' का मंत्र खोखला साबित होगा।यह रिपोर्ट एक चेतावनी है। समाज को आत्ममंथन करना होगा, ताकि दलित समुदाय न केवल सुरक्षित हो, बल्कि सम्मानित भी। अन्यथा, असमानता का यह चक्रव्यूह देश को पीछे धकेलता रहेगा।
यह लेखिका के अपने निजी विचार हैं।